सचिन की सोच…
सन 1989 में मैं सिर्फ नौ साल का था जब सचिन तेंदुलकर ने खेलना शुरू किया। उन दिनों, पूरे भारतवर्ष के हरेक उम्र के बालक के जैसे ‘गली-क्रिकेट’ खेलना हमारा भी शगल था। और इसी शौक़ के चलते बारह-तेरह साल का होते-होते हर गली-मोहल्ले के बालक के समान हमने भी बड़े-बुजुर्गो की गालियों और अन्य अलंकरणों का स्वाद चख लिया था। आप भी मानेंगे कि पिछले बीस सालों में हर शहर-कस्बे-मुहल्ले के क्रिकेट-प्रेमी बालक-युवक ने ये सुरीले शब्द ज़रूर सुने होंगे – “बड़े आये खिलाड़ी! सब $@@!- सचिन तेंदुलकर बनने चले हैं..” और इसके साथ ये ताकीद कि, “जाओ-जाओ, कुछ पढ़ाई करो, सब के बस में नहीं तेंदुलकर बनना…”
अब बड़े मियाँ तो बोल के चल दिए, और हमें बड़ी ही खीज हो। काहे सचिन नहीं बन सकते हम? और फिर वो भी तो पढ़ा नहीं ठीक से; अगर उसके माँ-बाप भी उसको सिर्फ पढ़ाई में टॉप करने को बोलते और इसी तरह गरियाते, तो हम भी देखते कि भाई इत्ता बड़ा क्रिकेटर कैसे बनता। और भी ना जाने क्या ऊल-जलूल ख्याल मन में आते। अब आप तो जानते हैं कि इस उम्र में हम बालक क्या शेरदिल बाते करते हैं – “कल से खूब प्रैक्टिस करेंगे सुबह चार बजे से ही। बड़े वाले मैदान में चलेंगे सारे भाई और बहुत पसीना बहायेंगे। और फिर वो ज़ोरदार खेल दिखायेंगे कि देखते हैं अंडर-14, अंडर-16 में सिलेक्शन कैसे नहीं होगा। स्कूल-टीम में तो हमें ही खेलना है…”
….और भी न जाने क्या-क्या कच्चे-पक्के ख्याली पुलाव पकते!
अब असलियत तो हम सबके सामने है कि कौन माई-का-लाल कहाँ-कहाँ झंडे गाड़ पाया इस अंग्रेज़ी गुल्ली-डंडे के खेल में! और सचिन, अब भी सचिन है…
एक बात जो याद है मुझे और जिसने मेरे बालमन पे एक अमिट छाप छोड़ी। बचपन में सभी अंतरराष्ट्रीय टीमों के उम्दा क्रिकेटरों को खेलते देखा, सब एक से बढ़कर एक। फिर भी उनके बीच सचिन के सबसे जुदा और ऊँचे स्थान को देखते हुए एक सवाल जो मेरे मन में रह-रह कौंधता, वो था कि भई कैसे ये सचिन, सचिन है! खाता क्या है जो ये दनादन रन बनाता है? क्या राज़ क्या है भई?
इसका जवाब कई लोगो ने मुझे अलग-अलग तरीक़े से दिया, और हर जवाब कुछ ऐसा जैसे वो तो जी सब जानते हों कि अपना भाई आखिर क्या घुट्टी पीता है। अख़बार पढ़ो, तो क्रिकेट एक्सपर्ट्स के अपने अलग तकनीकी विचार थे इस बारे में… समझ न आये कि क्या सही, क्या ग़लत! और क्या मानें, क्या नहीं…
एक दिन जवाब मिला, एकदम सटीक। सचिन के गुरु श्री आचरेकर से किसी अख़बार-नवीस ने पूछा – सचिन और कांबली, दोनों आपके शिष्य हैं, दोनो को आपने सिखाया, दोनों ने एक साथ खेलना शुरू किया…क्या कारण है कि सचिन, सचिन है और कांबली अच्छा खेलने के बावज़ूद पीछे रह गया है?
गुरु आचरेकर ने सोच के जवाब दिया, “कांबली क्रिकेट के अलावा भी सोचता है, सचिन सिर्फ और सिर्फ क्रिकेट के बारे में ही सोचता है…“
याद पड़ता है कि मैं कुछ पंद्रह-सोलह साल का रहा हूँगा जब मैंने ये पढ़ा था। बात मन को छू गयी; गाँठ बांध ली कि भैय्या, यही मंतर है सफलता का! और जब इतने महान खिलाड़ी का गुरु ये मंतर दे, तो सही ही होगा।
सचिन जैसे बिरले ही आते हैं धरती पर, सदियों में एक बार। और मेरे बाल मन पर उसके जीवन, उसकी सोच का जो न मिटने वाला असर रहा, और रहेगा, वो मेरे बहुत काम आया। इस एक ब्रम्ह-वाक्य ने मुझे अपने जीवन में एक नयी एकाग्रता दी…
अपने सचिन को उसके शानदार खेल-जीवन की अनेक बधाई। वो सेवा-निवृत्त सिर्फ खेलने से हो रहा है, इस महान खेल से नहीं, ऐसा मेरा मन कहता है… उसे एक नयी पारी हम किसी नयी जगह, किसी नए मैदान में, इसी कौशल के साथ खेलते देखेंगे, जल्दी ही।
आपने क्या सीखा सचिन से, बताईगा।
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Photo-credit: cricketinnings.com
Very well written. Sachin truly added another religion in the secular country of India i.e. Cricket and this is the religion which unites the nation. I actually grew up seeing him play and with his retirement announcement his entire career flashed in front of me..
Umang
October 15, 2013 at 1:06 PM
Hey Umang, thanks for your comment.
RRGwrites
October 15, 2013 at 10:27 PM