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मेरा हिमालय और उसका क़ब्रिस्तान
मैं पिछले कई वर्षों से बद्रीनाथ यात्रा पर जाता हूँ। एक भक्त के रूप में नहीं, एक बाइकर के रूप में। हिमालय मेरा आँगन रहा है बालमन से और जब-जब मैं अपनी रॉयल एनफ़ील्ड मोटरसाइकिल ले कर बद्रीनाथ गया, वही पहाड़ और वही पहाड़ी रास्ते मेरे लिए पूज्य और देव-तुल्य रहे, किसी भी मंदिर से ज़्यादा।
हाल के सालों में – 2012 और 2015 – ये दो यात्रायें की बाबा बद्रीनाथ के द्वार को। आप कह सकते हैं – ज़लज़ला आने के पहले वाले साल और उसके दो साल बाद। जो देखा, और महसूस किया, वो शब्दों में बयां नहीं कर सकता। सड़कें तो बन गयीं हैं, पहले से बेहतर भी है। पर सड़को से नीचे उतर कर देखो, तो पहले और बाद का भयावह फ़र्क़ पता चलता है।
इसलिए, 2012 की यात्रा का वर्णन तो आप मोटरसाइकिल डायरीज में यहाँ पढ़ सकते हैं, पर 2015 की यात्रा के बारे में लिख पाऊँ, वो शब्द और हिम्मत अब तक नहीं जुटा पाया हूँ।
कुछ दिन पहले दैनिक भास्कर अख़बार में जयप्रकाश चौकसे साहब के लेख में एक किताब का वर्णन पढ़ा – ‘हिमालय का क़ब्रिस्तान’– ये शीर्षक है प्रत्रकार लक्ष्मी प्रसाद पंत की इस पुस्तक का। पिछले दो दिन में ये किताब पढ़ी। केदारनाथ-काश्मीर-काठमाण्डू – तीनो जगहों की हिमालय-उपजित त्रासदी के बारे में एक निर्भीक पुस्तक।
अगर आप भी मेरे जैसे हिमालय से सच्चा प्रेम करते हैं – और न सिर्फ इसे पूजते हों और न सिर्फ इसे छुट्टी बिताने का मनोरम पर्यटन स्थल समझते हों – तो इस पुस्तक को पढ़ने की सलाह मैं आपको दूँगा।
इस किताब को पढ़ने के बाद मुझे एक बात याद आती है। 2012 की मोटरसाइकिल यात्रा के दौरान मेरा छोटा भाई नितिन भी साथ था – अपनी पहली लंबी मोटरसाइकिल यात्रा पर और पहली बार पहाड़ पर। ज़ाहिर तौर पर उत्सुकता ज़्यादा थी और सवाल भी। मैं हिमालय के बारे में जानता-पढ़ता रहता हूँ और सामाजिक-भौगोलिक जानकारियां रखता हूँ, एक आम पर्यटक से ज़्यादा। जब हम बद्रीनाथ पहुंचे तो अगली यात्रा केदारनाथ की हो, ऐसी बात होने लगी। बद्रीनाथ मंदिर के ठीक नीचे अपनी पूरी शान से बहती अलकनंदा के बारे में बात करते हुए मैंने नितिन को केदारनाथ के साथ बहती मन्दाकिनी नदी के बारे में बताया। ये भी कि कैसे पहले मन्दाकिनी नदी दो धाराओं में बहती थी – पूर्वी और पश्चिमी। और कैसे समय के साथ अब सिर्फ एक धारा में ही प्रवाहित होने लगी है। नितिन ने पूछा कि दूसरी तरफ क्या है अब? मुझे जवाब मालूम नहीं था, सो बात वही ख़त्म हो गयी।
मैं आपको बता दूँ कि जब अगले ही साल 2013 में सैलाब आया, तो मन्दाकिनी नदी ने सारे बंधन तोड़ दिए और दुसरे पुराने रास्ते से भी बह निकली – और उसे रास्ते में मिले घर, दुकान, होटल और न जाने क्या-क्या – अपने रास्ते में उसे मनुष्य का किया अतिक्रमण मिला। और वो उसे बहा ले गयी… पंत जी अपनी पुस्तक के बारे में इस बारे में विस्तार से लिखते हैं… उसे पढ़कर मेरी आँखे भर आईं और भाई से हुयी बात याद हो आयी।
अंग्रेजी उपन्यासकार कजाओ इशीगोरो के हवाले से लेखक ने लिखा है:
“जैसे शतरंज के खेल में जब तक हम अपनी चाल के ऊपर से ऊँगली नहीं उठाते, हमें अपनी ग़लती का अहसास नहीं होता, वैसे ही प्राकृतिक आपदाओं का अहसास भी अचानक ही होता है जब हमारी गलतियाँ अति कर देती हैं।”
2012 में मेरे पास इस प्रश्न का उत्तर नहीं था कि मन्दाकिनी के दूसरे रास्ते में क्या है। 2013 के बाद से मेरे पास इस प्रश्न का उत्तर नहीं है कि क्यों प्रशासन आंखें मूंदे रहा इतने वर्षों से लगातार फैलते अतिक्रमण पर। हमने नदी के रास्ते में अपना घर बनाया और अब दोष नदी को, कि उसने अपना वही रास्ता वापस चुन लिया, तो वो दैवी आपदा है?
मैं लेखक से पूर्णतया सहमत हूँ कि यह कोई दैवी आपदा नहीं थी। ना उत्तराखण्ड में, ना ही कश्मीर और नेपाल में। ये मनुष्य के लालच का परिणाम हैं, जिसे हम दैवी आपदा और हिमालय का प्रकोप और न जाने और क्या-क्या नाम देते हैं।
2016 – मैं फिर से तैयार हूँ मई माह में बद्रीनाथ जाने को। इस बार मेरी और नेहा की माएं भी साथ जा रहीं हैं। वो 2013 में नहीं जा पाईं थी – वही साल जब सब जल-मग्न हो गया था। परिवार ने तब चैन की सांस ली थी कि वो दोनों उस साल चार-धाम यात्रा पर नहीं जा पाईं। वो चैन की सांस जो हज़ारों-लाखों परिवार नहीं ले पाए। हिमालय मुझे फिर बुला रहा है और मैं इस बार कुछ डरता हुआ सा, पहली बार ऐसा महसूस करते, जा रहा हूँ।