Archive for October 2013
गरीबी, धर्म… और वोट
‘ना मो‘ और ‘रा गा’, और उनकी पार्टियों के बीच मची चुनावी खींचतान तेज़ होती जा रही है। बसपा, सपा, नितीश तो अपनी जगह हैं ही। और जब चुनाव करीब हों, तो धर्मं के ऊपर राजनीति होना इस देश का बड़ा ही पुराना दस्तूर है। इसी परंपरा के तहत हिंदुओं और मुसलमानों के हिमायती भाषणों की बाढ़ सी आयी हुयी है। जहाँ देखो वहाँ दोनों ही धर्मो के मानने वाले मतदाताओं के आर्थिक और सामाजिक पिछड़ेपन पर एक पार्टी का नेता दूसरी पार्टी के नेतृत्व को कोसता मिल जाएगा, ये वादा साथ में करते हुए कि कैसे सिर्फ उसकी पार्टी अमुक धर्म वालों की सबसे बड़ी संरक्षक और पालक है। या कैसे किसके पास किस धर्मगुरु या किस मौलवी का समर्थन और आशीर्वाद है, वगैरह-वगैरह…
जनता – दोनो ही धर्मों को मानने वाली – हमेशा की तरह सुन रही है…
और मैं, हमेशा की तरह, कुछ स्तब्ध सा हूँ…
आज़ादी के 66 सालों के बाद भी दो मुद्दे ताज़ा हैं; हर एक पार्टी के इलेक्शन मैनिफेस्टो का हिस्सा – गरीबी-उन्मूलन और धार्मिक-भावनाएं! अब कोई इनसे पूछे कि भाई, अगर आज़ादी के इतने सालों के बाद भी गरीबी न सिर्फ जारी है, बल्कि दिन-ब-दिन बढ़ती ही जाती है, तो इन महान राजनीतिज्ञों ने कौन से कद्दू में तीर मारा अपने-अपने राज में? चुनाव-दर-चुनाव किये गए सैकड़ों ‘गरीबी-हटाओ वायदों’ के बावज़ूद अगर ‘गरीबी’ आज इतने वर्षों के उपरांत भी निरंतर पनप रही है, तो क्या लानत नहीं भेजनी चाहिए इन सरकारों पर?
और धर्म? उसके तो क्या कहने! सन 2014 में भी ये मुद्दा है!! आज भी हम में से अधिकतर लोग (वो तबका जो वोट डालने जाता है!), इसी आधार पर अपना वोट कुर्बान कर आते हैं। कुछ इस मानसिकता के साथ कि जात-भाई ना जीता, तो हम पर धिक्कार है… आर्थिक, सामाजिक, शैक्षिक, इत्यादि-इत्यादि विकास कार्य तो अलग मुद्दे हैं, वो सब तो चलते रहते हैं…
हिंदी भाषा के महान लेखक, रामधारी सिंह दिनकर ने एक जगह कहा है:
“संस्कृति ज़िन्दगी का एक तरीका है और ये तरीका सदियों से जमा होकर उस समाज में छाया रहता है, जिसमे हम जन्म लेते हैं।”
मैं शहरे-अवध लखनऊ की गंगा-जमुनी संस्कृति का बाशिंदा हूँ; बचपन से मेरे मित्र सभी धर्मों के थे, आज भी हैं। मिशनरी स्कूल में हिन्दू और मुस्लिम दोनों पढ़ते थे, हम अपने सिख दोस्तों के साथ गुरूद्वारे जाते और जब भी मौका मिले, बंगाली रसगुल्ले नाक डुबो-डुबो कर खाते। जब कभी हम आपसे में लड़ते-भिड़ते, वो मजहबी रंग न लेकर दो छोरो की आपसी लड़ाई मानी जाती थी। होली और ईद, दोनों पर खुश होना हमने सीखा। दीवाली पर खील-बताशों के माफ़िक ईद पर सिवईंयां मैं आज भी खोजता-लाता हूँ। मेरे लिए ये ज़िन्दगी जीने का तरीका, मेरी संस्कृति है। हमारे वालिद साहब कहा करते थे, “जो धारण करने योग्य है, वही धर्म है।” ये सीख बहुत बचपन से मेरे साथ रही। तब तो, कम-स-कम मेरे बचपन के दिनों में, हिन्दू अगले और मुस्लिम पिछड़े या मुस्लिम आगे और हिन्दू पीछे – ऐसा नहीं होता देखा मैंने।
फिर ऐसा क्यों कि आने वाले चुनावों में एक बेचैन कर देने वाली मानसिकता हमें वोट डालने आमंत्रित कर रही है? और वो काफी हद तक सफल होती भी दीखती है! क्यों?
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Image-credit: mysay.in
Do You Allow Mistakes To Your Team?
My first boss taught me a lot many things, which benefitted my personal and professional life. He was a true leader and from him, I learnt some invaluable lessons in people leadership.
As a budding and raring HR professional back then, one of his sentences that gave me tremendous confidence and encouragement was:
“You cannot make any such mistake that I cannot correct…”
This one sentence acted as a big motivator for a youngster like me. It helped me take well-intentioned risks, encouraged me to push the envelope, be courageous in my actions and at the same time, instilled a sense of ownership and responsibility in me, that I shouldn’t let him down. The authenticity of his leadership made me believe that his support is there for me; that he has my back.
Over the period of last 8 years, as I graduated to become a people leader myself, this learning had an indelible mark on my way of working. I could see myself quite naturally extending the similar support to my teammates. And this one sentence helped me build an open, sincere, courageous and high-performance teams, year after year.
As these teams became bigger, and my lieutenants moved ahead from being individual contributors to people leaders, this culture of allowing mistakes only strengthened; supporting bold but well-meaning actions, without the fear of boss’s backlash in event of a failure – it all added to the overall performance of the team.
We all became better together; thanks to my learning from that one simple, authentic and powerful sentence. I am sure, wherever the team-members would go, as their careers take them, as and when they form new teams, they would foster the genuine culture of ‘allowing mistakes’. And that is what I call the magic of authentic leadership.
This is what I found to be a fundamental tenet of leadership; it works for me. Now, it is your turn. Do share your experiences. Do you allow your teams their genuine share of mistakes? Are you allowed to fail at times? Have you encountered managers who lose it when their subordinates make mistakes?
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Photo-credit: mactoons.com
PS: You may like reading this old post I wrote on leadership and failure: Leadership and Failure
सचिन की सोच…
सन 1989 में मैं सिर्फ नौ साल का था जब सचिन तेंदुलकर ने खेलना शुरू किया। उन दिनों, पूरे भारतवर्ष के हरेक उम्र के बालक के जैसे ‘गली-क्रिकेट’ खेलना हमारा भी शगल था। और इसी शौक़ के चलते बारह-तेरह साल का होते-होते हर गली-मोहल्ले के बालक के समान हमने भी बड़े-बुजुर्गो की गालियों और अन्य अलंकरणों का स्वाद चख लिया था। आप भी मानेंगे कि पिछले बीस सालों में हर शहर-कस्बे-मुहल्ले के क्रिकेट-प्रेमी बालक-युवक ने ये सुरीले शब्द ज़रूर सुने होंगे – “बड़े आये खिलाड़ी! सब $@@!- सचिन तेंदुलकर बनने चले हैं..” और इसके साथ ये ताकीद कि, “जाओ-जाओ, कुछ पढ़ाई करो, सब के बस में नहीं तेंदुलकर बनना…”
अब बड़े मियाँ तो बोल के चल दिए, और हमें बड़ी ही खीज हो। काहे सचिन नहीं बन सकते हम? और फिर वो भी तो पढ़ा नहीं ठीक से; अगर उसके माँ-बाप भी उसको सिर्फ पढ़ाई में टॉप करने को बोलते और इसी तरह गरियाते, तो हम भी देखते कि भाई इत्ता बड़ा क्रिकेटर कैसे बनता। और भी ना जाने क्या ऊल-जलूल ख्याल मन में आते। अब आप तो जानते हैं कि इस उम्र में हम बालक क्या शेरदिल बाते करते हैं – “कल से खूब प्रैक्टिस करेंगे सुबह चार बजे से ही। बड़े वाले मैदान में चलेंगे सारे भाई और बहुत पसीना बहायेंगे। और फिर वो ज़ोरदार खेल दिखायेंगे कि देखते हैं अंडर-14, अंडर-16 में सिलेक्शन कैसे नहीं होगा। स्कूल-टीम में तो हमें ही खेलना है…”
….और भी न जाने क्या-क्या कच्चे-पक्के ख्याली पुलाव पकते!
अब असलियत तो हम सबके सामने है कि कौन माई-का-लाल कहाँ-कहाँ झंडे गाड़ पाया इस अंग्रेज़ी गुल्ली-डंडे के खेल में! और सचिन, अब भी सचिन है…
एक बात जो याद है मुझे और जिसने मेरे बालमन पे एक अमिट छाप छोड़ी। बचपन में सभी अंतरराष्ट्रीय टीमों के उम्दा क्रिकेटरों को खेलते देखा, सब एक से बढ़कर एक। फिर भी उनके बीच सचिन के सबसे जुदा और ऊँचे स्थान को देखते हुए एक सवाल जो मेरे मन में रह-रह कौंधता, वो था कि भई कैसे ये सचिन, सचिन है! खाता क्या है जो ये दनादन रन बनाता है? क्या राज़ क्या है भई?
इसका जवाब कई लोगो ने मुझे अलग-अलग तरीक़े से दिया, और हर जवाब कुछ ऐसा जैसे वो तो जी सब जानते हों कि अपना भाई आखिर क्या घुट्टी पीता है। अख़बार पढ़ो, तो क्रिकेट एक्सपर्ट्स के अपने अलग तकनीकी विचार थे इस बारे में… समझ न आये कि क्या सही, क्या ग़लत! और क्या मानें, क्या नहीं…
एक दिन जवाब मिला, एकदम सटीक। सचिन के गुरु श्री आचरेकर से किसी अख़बार-नवीस ने पूछा – सचिन और कांबली, दोनों आपके शिष्य हैं, दोनो को आपने सिखाया, दोनों ने एक साथ खेलना शुरू किया…क्या कारण है कि सचिन, सचिन है और कांबली अच्छा खेलने के बावज़ूद पीछे रह गया है?
गुरु आचरेकर ने सोच के जवाब दिया, “कांबली क्रिकेट के अलावा भी सोचता है, सचिन सिर्फ और सिर्फ क्रिकेट के बारे में ही सोचता है…“
याद पड़ता है कि मैं कुछ पंद्रह-सोलह साल का रहा हूँगा जब मैंने ये पढ़ा था। बात मन को छू गयी; गाँठ बांध ली कि भैय्या, यही मंतर है सफलता का! और जब इतने महान खिलाड़ी का गुरु ये मंतर दे, तो सही ही होगा।
सचिन जैसे बिरले ही आते हैं धरती पर, सदियों में एक बार। और मेरे बाल मन पर उसके जीवन, उसकी सोच का जो न मिटने वाला असर रहा, और रहेगा, वो मेरे बहुत काम आया। इस एक ब्रम्ह-वाक्य ने मुझे अपने जीवन में एक नयी एकाग्रता दी…
अपने सचिन को उसके शानदार खेल-जीवन की अनेक बधाई। वो सेवा-निवृत्त सिर्फ खेलने से हो रहा है, इस महान खेल से नहीं, ऐसा मेरा मन कहता है… उसे एक नयी पारी हम किसी नयी जगह, किसी नए मैदान में, इसी कौशल के साथ खेलते देखेंगे, जल्दी ही।
आपने क्या सीखा सचिन से, बताईगा।
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Super Manoos. Waiting For The Next Ball…
Photo-credit: cricketinnings.com